Maharani Jaivanta Bai Biography - भारत का महान इतिहास वीरांगनाओं के अतुलनीय साहस की कहानियों से भरा पड़ा है। आज हम आपको ऐसे ही भारतीय इतिहास की महान वीरांगना महारानी जयवंता बाई के बारे में बताने वाले है।
महारानी जयवंता बाई की जीवनी
महारानी जयवंता बाई मेवाड़ के महाराणा उदय सिंह द्वितीय की पत्नी और इतिहास के सबसे महान योद्धा महाराणा प्रताप की माँ थी। वह एक बहादुर, युद्ध कौशल मे निपुण, आदर्शवादी राजपूत रानी थी।
जयवंता बाई पाली (राजस्थान का एक सियासत) के राजा अखेराज सिंह सोंगरा की बेटी थीं। वे बचपन से ही बेहद बहादुर और जांबाज थीं। उन्हें शादी से पहले जीवंत कंवर के नाम से जाना जाता था। शादी के बाद उनका नाम बदलकर जयवंता बाई हो गया।
महाराणा उदय सिंह के साथ विवाह
जयवंता बाई उदय सिंह की पहली पत्नी थी। महाराणा उदय सिंह के साथ उनकी शादी बेहद नाटकीय ढंग और विशेष परिस्थितियों में हुई थी।
1540 में कुम्भलगढ़ में उदय सिंह का राजतिलक किया गया और मेवाड़ का राणा बनाया गया। उदयसिंह की ताजपोशी के समय कुंभलगढ़ में कई बनवीर समर्थक राजपूत शासकों ने उदय सिंह के वास्तविकता पर संदेह जाहिर किया। उनलोगों ने यह प्रश्न उठाया कि क्या ये उदय सिंह ही वाकई में महाराणा सांगा और रानी कर्णावती के बेटे है। तब अखेराज सिंह सोंगरा ने उदय सिंह की वास्तविकता के प्रमाण के लिए अपनी बेटी जीवंत कंवर का विवाह उदय सिंह के साथ करवाने का ऐलान किया। इसके बाद उन्होंने अपने परिवार को पाली से कुम्भलगढ़ बुलवाया और अपनी पुत्री जीवंत कंवर का विवाह उदय सिंह के साथ करवाई। इसप्रकार जयवंता बाई और महाराणा उदय सिंह का विवाह हुआ।
पुत्र महाराणा प्रताप का जन्म
9 मई, 1540 ई. को राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग में महारानी जयवंता बाई ने महाराणा प्रताप को जन्म दिया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महाराणा प्रताप सिंह की जन्म कुंडली से यह पता चलता है कि उनका जन्म पाली जिले के राजमहल में हुआ है क्योंकि उनकी माता जयवंता बाई पाली जिले की थी और हिंदू संस्कृति में ऐसा माना जाता है महिलाएँ अपने पहले बच्चे को अपने पीहर (मायके) में जन्म देती है।
प्रताप के जन्म के समय ही महाराणा उदय सिंह ने खोए हुए चित्तौड़ को जीता। इस विजय यात्रा में जयवंता बाई भी उदयसिंह के साथ थीं।
चित्तौड़ विजय के बाद उदय सिंह ने मालपुरा के सोलंकी और जैसलमेर के भाटी राजघरानों में शादियां की।
रानी धीरबाई भटियानी ने उदयसिंह को मोहासक्त कर लिया और दरबारियों ने जयवंता बाई के खिलाफ षड्यंत्र शुरू कर दिए।
जयंवता बाई बालक प्रताप को लेकर चित्तौड़ दुर्ग से नीचे बनी हवेली में रहने लगीं। यही से शुरू हुआ प्रताप सिंह के भारतीय इतिहास के सबसे महान योद्धा महाराणा प्रताप सिंह बनने का बीजारोपण। जयवंता बाई ने प्रताप का पालन पोषण कुछ इस तरह किया कि वे इतिहास के सबसे महान योद्धा और आदर्शवादी शासक बने।
प्रशासनिक कुशल मां ने प्रताप को अपने जैसा जांबाज बनाया और शूरवीरता के गुण दिए। वे कृष्ण भक्त थीं। इसलिए कृष्ण के युद्ध कौशल को भी प्रताप के जीवन में उतार दिया। उन्हें प्रशासनिक दक्षता सिखाई और रणनीतिकार बनाया। उन्हें जीवन में सिद्धांतों के प्रति अडिग रहने के संस्कार भी इसी मां ने दिए। बाद में अपने जीवन में प्रताप ने उसी आदर्शवादी और सिद्धांतों का पालन किया जो जयवंता बाई ने उन्हें सिखाया था।
जयवंता बाई खुद एक बेहतर घुड़सवार थीं और उन्होंने बेटे को भी दुनिया का बेहतरीन अश्वारोही शूरवीर बनाया। उनके यही संस्कार हल्दीघाटी के युद्ध और उसके बाद के हालात में प्रताप को दुनिया के समस्त शासकों से अलग करते हैं। यह जयवंता बाई ही थी जिन्होंने प्रताप को शासन करने का यह संस्कार दिया कि उन्होंने हल्दीघाटी जैसे युद्ध में अपना सेनापति हकीम खां सुर को बनाकर अकबर के युद्ध कौशल की धार भोथरी कर दी।
जयवंता बाई एक कुशल राजनीतिकार थी। वह शासन व्यवस्था को अच्छी तरह से जानती थी। जयवंता बाई उदय सिंह को राजनीतिक मामलों में सलाह देती थी। जयवंता बाई महाराणा उदय सिंह को राज्य के सुचारू रूप से संचालन के लिए अपने विचार रखती थी। महाराणा उदय सिंह ने मेवाड़ के प्रति अनेक ऐसे निर्णय लिए थे जो उन्होंने रानी से पूछ कर लिए थे। प्रताप ये सब बचपन से सीख रहे थे। राज्य को चलाने की नीतियाँ महाराणा प्रताप ने अपने पिता से ज्यादा अपनी माँ से सीखी थी।
महाराणा प्रताप ने एक कुशल राज्य प्रशासन की स्थापना की थी। उनका राजव्यवस्था लोककल्याणकारी था। मेवाड़ की राजव्यवस्था के बारे में कहा जाता है कि जब महाराणा प्रताप का शासन था तो मेवाड़ में एक भी चोरी नहीं हुई थी।
धर्म और न्याय उन्होंने अपने माँ से सीखी थी। ये उनके माँ के दिए हुए आदर्श और सिद्धांत थे कि उन्होंने मुग़लों के सामने कभी सर नहीं झुकाया और अंत समय तक संघर्ष करते रहे। महाराणा प्रताप में जो पराक्रम था वो उनकी माँ की परवरिश का ही नतीजा था कि उनके पराक्रम के सामने एक मजबूत साम्राज्य टिक नहीं पाया।
कुछ किवदन्तियों के अनुसार उदयसिंह की कुल 22 पत्नियां, 53 पुत्र और 22 पुत्रियां थी। उदय सिंह की दूसरी पत्नी का नाम सज्जा बाई सोलंकी था जिन्होंने शक्ति सिंह और विक्रम सिंह को जन्म दिया था। इनकी एक पत्नी रानी वीरबाई झाला थी जिन्होंने जेठ सिंह को जन्म दिया था।
रानी धीरबाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, उदय सिंह की सबसे पसंदीदा पत्नी थी। धीरबाई भटियानी ने जगमाल सिंह ,चांदकंवर और मानकंवर को जन्म दिया। रानी धीरबाई भटियानी अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी।
उदयसिंह ने अपनी मृत्यु के समय भटियानी रानी के प्रति आसक्ति के चलते अपने छोटे पुत्र जगमल को गद्दी सौंप दी। जबकि, प्रताप ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे। उदयसिंह के फैसले का उस समय सरदारों और जागीरदारों ने भी विरोध किया।
1572 में महाराणा उदय सिंह की मृत्यु के बाद जगमल अपने पिता की इच्छा के अनुसार मेवाड़ की गद्दी पर बैठ गए। जगमल को गद्दी मिलने पर जनता में विरोध और निराशा उत्पन्न हुई।
मेवाड़ की प्रजा महाराणा प्रताप से लगाव रखती थी। इसके चलते राजपूत सरदारों ने मिलकर विक्रम संवत 1628 फाल्गुन शुक्ल 15 अर्थात 1 मार्च 1576 को महाराणा प्रताप को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाया। इस घटना से जगमल उनका शुत्र बन गया और अकबर से जा मिला।
हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने अपनी माता जयवंता बाई को शक्ति सिंह के साथ माइनसोर के दुर्ग में भेज दिया जिसे शक्ति सिंह ने अपनी छोटी-सी सेना के साथ मिलकर मुगलों पर आक्रमण करके जीता था। महाराणा प्रताप अपनी माता का कष्ट नहीं देख सकते थे और वह नहीं चाहते थे कि उनकी माता को जंगलों में भटकने की परेशानी हो।
जयवंता बाई एक कृष्ण भक्त थी जो हर समय भगवान की पूजा-पाठ करती थी। इन्होंने अपना आखिरी जीवन वृंदावन में बिताया।
महारानी जयवंता बाई का जीवन आज भी हमारे लिए प्रेरणा-स्रोत है। इतिहास में उनका नाम स्वर्णिम अक्षरों से अंकित है। महाराणा प्रताप के कुशल योद्धा और शासक होने में इन्होने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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